Saturday, April 26, 2014

Dr. Kumar Vishwas Giving Strong Message through "Rastrakavi Dr. Ramdhari Singh Dinkar" to all indian people.must watch video

राष्ट कवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं

"चल रहा था महाभारत का रण जल रहा धरती
का सुहाग पर कुरुक्षेत्र में खेल रही नर के भीतर
 की कुटिल आग बज़िओ गजो की लोथो में
गिर रहे मनुष्य के क्षिड रहे अंग बह रहा में रहा
चुतरपश और विपद मिश्र का एक संग तवतर
कह रही यावतार भूदर से रक्त रंगत शरीर झूज
 रहे कोंतिया कन्द क्षण क्षण करते कबीर इतने
में सरके लिए करण ने ज्यों देखा निशंक तरकश
में से फुंकार उठा कोई प्रचंड विषधर भुजंग कहता
करण में  अंशव क्षेम विशुद्ध भुजंगों का स्वामी हूँ


जनम से पार्थ का शत्रु और परम तेरा बहुविध स्वामी
हूँ बस एक बार कर्प्या कर धनुष पर चढ़ शरबय तक
जाने दे कर वमन गरल जीवन भर का सचित प्रतिशोद
उत्तरुंगा तू मुझे सहारा दे में तुरंत  पार्थ को मारूंगा राधेय
 यह जरा हंस कर बोला रे कुटिल बात क्या कहता हैं
नर का समस्त साधन जय का अपनी बाहों में रहता हैं
 जीवन भर निष्ठा पाली उस का क्षार करूँ.तेरी सहायता से
जय तो में अनायास ही पा जाऊँगा. पर आने वाली मानवता
को किया मुख दिलाऊंगा सन्सार केह्गा जीवन सब सुखद
करन ने क्षार किया प्रतिभट का वध का सर्पो का सहया लिया हैं
 अशुदेव तेरे अनेक वशंज हैं छिपे नरो में भी ये प्रतिभट के वध
के लिए ये नीच नर बुजंग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं
 नीच सहाय ये सर्प का लेते हैं "

Thursday, April 24, 2014

Dr. Kumar Vishwas New Poem...हम है देसी हम है देसी हम है देसी

एशिया  के  हम  परिंदे , आसमा  है  हद  हमारी ,
जानते  है  चाँद  सूरज , जिद  हमारी  ज़द  हमारी ,
हम  वही  जिसने  समंदर  की , लहर  पर  बाँध  साधा ,
हम  वही  जिनके  के  लिए  दिन , रात  की  उपजी  न  बाधा,
हम  की  जो  धरती  को  माता , मान  कर  सम्मान  देते ,
हम  की  वो  जो  चलने  से  पहले , मंजिले  पहचान  लेते ,
हम  वही  जो  शून्य  मैं  भी , शून्य  रचते  हैं   निरंतर ,
हम  वही  जो  रौशनी  रखते , है  सबकी  चौखटों   पर ,
उन  उजालो  का  वही , पैगाम  ले  ए  है  हम ,
हम  है  देसी  हम  है  देसी  हम  है  देसी ,
हा  मगर  हर  देश  छाए  है  हम ………




ज़िंदा  रहने  का  असल  अंदाज़ , सिखलाये  है  हमने ,
ज़िंदगी  है  ज़िंदगी  के , बाद  समझाया  है  हमने ,
हमने  बतलाया  की , कुदरत  का  असल  अंदाज़  क्या  है ,
रंग  क्या  है  रूप  क्या  है , महक  क्या  है  स्वाद  क्या  है ,
हमने  दुनिया  मोहबत , का  असर  ज़िंदा  किया  है ,
हमने  नफरत  को  गले  मिल , मिल  के  शर्मिंदा  किया  है ,
इन  तरर्की  के  खुदाओं , ने  तो  घर  को  दर  बनाया ,
इन  पड़े  खली  मकानो , को  हमी  ने  घर  बनाया ,
हम  न  आते  तो  तरकी , इस  कदर  न  बोल  पति ,
हम  न  आते  तो  ये  दुनिया , खिड़किया  न  खोल  पति ,
है  यसोदा  के  यह  पर , देवकी  जाये  है  हम ,
हम  है  देसी  हम  है  देसी  हम  है  देसी ,
हा  मगर  हर  देश  छाए  है  हम …………….

Wednesday, April 23, 2014

Dr. kumar vishwas famous poem होठों पर गंगा हो, हाथों मैं तिरंगा हो

शोहरत ना अता करना मौला,दौलत ना अता करना मौला
बस इतना अता करना चाहे,जन्नत ना अता करना मौला
शम्मा-ए-वतन की लौ पर जब कुर्बान पतंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों मे तिरंगा हो



बस एक सदा ही उठे सदा बर्फ़ीली मस्त हवाओं मैं
बस एक दुआ ही उठे सदा जलते तपते सहराओं मैं
जीते जी इसका मान रखे, मारकर मर्यादा याद रहे
हम रहे कभी ना रहे मगर, इसकी सज धज आबाद रहे
गोधरा ना हो, गुजरात ना हो, इंसान ना नंगा हो
होठों पर गंगा हो, हाथों मैं तिरंगा हो.

गीता का ज्ञान सुने ना सुने
इस धरती का यश्गान सुने
हम शबद कीर्तन सुन ना सके
भारत माँ का जय गान सुने
परवरदिगार मैं तेरे द्वार
कर लो पुकार ये कहता हूँ
चाहे अज़ान ना सुने कान पर जय जय हिन्दुस्तान सुने
जन मन मे उच्छल देश प्रेम का जलधि तरंगा हो
होठों पर गंगा हो
हाथों मे तिरंगा हो



Tuesday, April 22, 2014

Dr.Kumar vishwas latest poem ...इतनी रंग बिरंगी दुनिया, दो आखों में कैसे आये

इतनी रंग बिरंगी दुनिया,
दो आखों में कैसे आये |
हमसे पूछो इतने अनुभव,
एक कंठ से कैसे गाये |

ऐसे  उजले लोग मिले जो,
अन्दर से बेहद काले थे |
ऐसे चतुर लोग मिले जो,
मन से भोले भाले थे |
ऐसे धनी लोग मिले जो,
कंगलो से भी जयादा रीते थे |
ऐसे मिले फकीर जो,
सोने के घट में पानी पीते थे |

मिले परायेपन से अपने,
अपनेपन से मिले पराये |
हमसे पूछो इतने अनुभव,
एक कंठ से कैसे गाये |




जिनको जगत विजेता समझा,  
मन के हारे धारे निकले |
जो हारे हारे लगते थे,
अन्दर से ध्रुव तारे निकले |
जिनको पतवारें सौपी थी,
वे भवरों के सूदखोर थे |
जिनको भावर समझ डरता था,
आखिर वही किनारे निकले |

वे मंजिल तक क्या पहुंचेंगे,
जिनको खुद रास्ता भटकाए |
हमसे पूछो इतने अनुभव,
एक कंठ से कैसे गाये | 

Dr. Kumar Vishwas very famous Poem-क्या अजब रात थी ,क्या गज़ब रात थी

क्या  अजब  रात  थी ,क्या  गज़ब  रात  थी ,
दंश  सहते  रहे ,मुस्कुराते   रहे ,
देह  की  उर्मियाँ  बन  गयीं  भगवत ,
हम  समर्पण  भरे  अर्थ  पाते  रहे

मन  मैं  अपराध  की  एक  शंका  लिए ,
कुछ  क्रियाएँ  हमे  जब  हवन  सी  लॉगिन ,
एक  दूजे  की  साँसों  मैं  घुलती  हुई
बोलियाँ  भी  हमे  जब  भजन  सी  लॉगिन

कोई  भी  बात  हमने  न  की  रात  भर ,
प्यार  की  धुन  कोई  गुनगुनाते  रहे ,
देह   की  उर्मियाँ  बन  गयीं  भगवत
हम  समर्पण  भरे  अर्थ  पाते  रहे




पूर्णिमा  की  अनघ  चांदनी  सा  बदन
मेरे  आगोश  मैं  यूँ  पिघलता  रहा
चूड़ियों   से  भरे  हाथ  लिपटे  रहे
सुर्ख  होंठों  से  झरना  सा  झरता  रहा

एक  नशा  सा  अजब  छा  गया  था  की  हम
खुद  को  खोते  रहे  तुम  को  पाते  रहे ,
देह  की  उर्मियाँ  बन  गयीं  भगवत ,
हम  समर्पण  भरे  अर्थ  पाते  रहे

आहटों  से  बहुत  दूर  पीपल  टेल
वेग  के  व्याकरण  पायलों  ने  गढे
शाम  गीतों  के  आरोह  अवरोह  मैं
मौन  के  चुम्बनी  सूक्त  हमने  पढ़े

सौंप  कर  उन  अंधेरों  को  सब  प्रश्न  हम
एक  अनोखी  दिवाली  मानते  रहे
देह  की  उर्मियाँ  बन  गयीं  भगवत
हम  समर्पण  भरे  अर्थ  पाते  रहे

DR. KUMAR VISHWAS POEM हार गया तन मन पुकारकर तुम्हें .

हार गया तन मन पुकारकर तुम्हें .
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें 

जिस पल हल्दी लिपि होगे तन पर माँ ने 
जिस पल सखियों ने सौंपी होंगी सौगातें 
ढोलक की थापों में, घुंघरू की रुनाझां में 
घुल कर फ़ैली होंगी घर में प्यारी बातें 

उस पल मीठी सी धून 
घर के आँगन में सुन 
रोये मन - चौसर पर हारकर तुम्हें 
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें 


कल तक जो हमको तुमको मिलवा देती थीं 
उन सखियों के प्रश्नों ने टोका तो होगा 
साजन की अंजुरी पर, अंजुरी काँपी होगी
मेरी सुधियों ने रास्ता रोका तो होगा

उस पल सोचा मन में
आगे अब जीवन में 
जी लेंगे हंसकर, बिसार कर तुम्हें 
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें 

कल तक जिन गीतों को तुम अपना कहते थे
अखबारों में पढ़कर कैसा लगता होगा
सावन की रातों में, साजन की बाहों में 
तन तो सोता होगा पर मन जागता होगा

उस पल के जीने में 
आंसू पी लेने में 
मरते हैं, मन ही मन, मार कर तुम्हें 
कितने एकाकी  हैं प्यार कर तुम्हें 

हार गया तन मन पुकार कर तुम्हें 
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें



Dr. kumar vishwas latest poem, Har ek khone har ek pane me teri yaad aati hai.

Har ek khone har ek pane me teri yaad aati hai,
Namak aankho me ghul jane me teri yaad aati hai,
Teri amrit bhari lehro ko kya malum ganga maa,
Samundar paar veerane me teri yaad aati hai,

Har ek khali pade aalind teri yaad aati hai,
Subah ke khwab ke manind teri yaad aati hai,
Hello , hey , hii kahta hai nahi aati magar,
Koi kahta hai jab jai hind teri yaad aati hai,













Sujhaye maa jo muhurat teri yaad aati hai,
Hanse gar budhh ki murat to teri yaad aati hai,
Kahi dollar ke piche chup gaye bharat ke noto par,
Dikhe gandhi ki jab surat toh teri yaad aati hai,

Koi dekhe janam-patri toh teri yaad aati hai,
Koi rag rag me savitri toh teri yaad aati hai,
Achanak muskilon me hath jode aankh munde jab,
Koi japta hai gaytri toh teri yaad aati hai,

Agar mausam ho manbhawan toh teri yaad aati hai,
Jhare megho se gar saawan toh teri yaad aati hai,
Kahi rahman ki jai ho sunkar garv ke aansu,
Kare jab paawan toh teri yaad aati hai...

Kumar vishwas New Poem " Koi Manzil Nahi jachti suffer achha nahi lagta "

"Koi Manzil Nahi Jachti, Safar Achcha Nahi Lagta ,

Agar Ghar Laut Bhi Aaun To Ghar Achcha Nahi Lagta ,

Karun kuchbhi,Mai ab Duniya ko sab,Achcha hi lagta hai

Mujhe Kuch Bhi Tumhare Bin Magar Achcha Nahi Lagta"