क्या अजब रात थी ,क्या गज़ब रात थी ,
दंश सहते रहे ,मुस्कुराते रहे ,
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत ,
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
मन मैं अपराध की एक शंका लिए ,
कुछ क्रियाएँ हमे जब हवन सी लॉगिन ,
एक दूजे की साँसों मैं घुलती हुई
बोलियाँ भी हमे जब भजन सी लॉगिन
कोई भी बात हमने न की रात भर ,
प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे ,
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
पूर्णिमा की अनघ चांदनी सा बदन
मेरे आगोश मैं यूँ पिघलता रहा
चूड़ियों से भरे हाथ लिपटे रहे
सुर्ख होंठों से झरना सा झरता रहा
एक नशा सा अजब छा गया था की हम
खुद को खोते रहे तुम को पाते रहे ,
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत ,
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
आहटों से बहुत दूर पीपल टेल
वेग के व्याकरण पायलों ने गढे
शाम गीतों के आरोह अवरोह मैं
मौन के चुम्बनी सूक्त हमने पढ़े
सौंप कर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम
एक अनोखी दिवाली मानते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
दंश सहते रहे ,मुस्कुराते रहे ,
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत ,
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
मन मैं अपराध की एक शंका लिए ,
कुछ क्रियाएँ हमे जब हवन सी लॉगिन ,
एक दूजे की साँसों मैं घुलती हुई
बोलियाँ भी हमे जब भजन सी लॉगिन
कोई भी बात हमने न की रात भर ,
प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे ,
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
पूर्णिमा की अनघ चांदनी सा बदन
मेरे आगोश मैं यूँ पिघलता रहा
चूड़ियों से भरे हाथ लिपटे रहे
सुर्ख होंठों से झरना सा झरता रहा
एक नशा सा अजब छा गया था की हम
खुद को खोते रहे तुम को पाते रहे ,
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत ,
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
आहटों से बहुत दूर पीपल टेल
वेग के व्याकरण पायलों ने गढे
शाम गीतों के आरोह अवरोह मैं
मौन के चुम्बनी सूक्त हमने पढ़े
सौंप कर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम
एक अनोखी दिवाली मानते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयीं भगवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
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